स्वभावतः मनुष्य को शाकाहारी होना चाहिए!!

स्वभावतः मनुष्य को शाकाहारी होना चाहिए, क्योंकि उसका पूरा शरीर शाकाहारी भोजन के लिए बना है। वैज्ञानिक भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि मनुष्य-शरीर का सारा ढांचा यही बताता है कि मनुष्य को मांसाहारी नहीं होना चाहिए। मनुष्य आया है बंदरों से। बंदर शाकाहारी हैं-पक्के शाकाहारी हैं। यदि डार्विन की बात सच है तो मनुष्य को शाकाहारी होना चाहिए।

अब कई तरीके हैं यह निर्णय करने के कि जानवरों की कोई प्रजाति शाकाहारी है या मांसाहारी. यह निर्भर करता है अंतड़ियों पर, अंतड़ियों की लंबाई पर। मांसाहारी जानवरों की आत बहुत छोटी होती है। चीता, शेर-उनकी आत बहुत छोटी होती है, क्योंकि मांस पहले से ही पचाया हुआ भोजन है। उसे पचाने के लिए लंबी आत नहीं चाहिए। पचाने का काम तो जानवर ने ही पूरा कर दिया है। अब तुम खा रहे हो जानवर का मांस। वह पचाया हुआ ही है, लंबी आत की जरूरत नहीं है। मनुष्य की आत बहुत लंबी है. इसका अर्थ हुआ कि मनुष्य शाकाहारी प्राणी है। लंबी पाचन क्रिया चाहिए, और बहुत कुछ व्यर्थ होता है जिसे बाहर फेंकना होता है।

तो यदि आदमी मांसाहारी नहीं है और वह मांस खाता है, तो शरीर बोझिल हो जाएगा। पूरब में, सभी गहरे ध्यानियों ने बुद्ध, महावीर - उन्होंने मांसाहार न करने पर बहुत जोर दिया है। अहिंसा की धारणा के कारण नहीं-वह गौण है। लेकिन इस कारण कि यदि तुम सच में ही गहरे ध्यान में उतरना चाहते हो तो तुम्हारे शरीर को निर्भर होने की जरूरत है, स्वाभाविक और प्रवाहापूर्ण होने की जरूरत है। तुम्हारा शरीर हलका होना चाहिए; और मांसाहारी का शरीर बहुत बोझिल होता है।

कभी ध्यान देना कि क्या होता है जब तुम मांस खाते हो जब तुम किसी पशु को मारते हो तो क्या होता है उसे जब वह मरता है? निश्चित ही, कोई नहीं मरना चाहता। जीवन स्वयं को जारी रखना चाहता है, पशु स्वेच्छा से तो मर नहीं रहा है। अगर कोई तुम्हारी हत्या करे, तो तुम शाति से तो मर नहीं जाओगे। यदि एक सिंह छलांग लगा दे तुम पर और मार डाले तुमको, तो तुम्हारे मन पर क्या गुजरेगी? वैसी ही तकलीफ सिंह को होती है जब तुम सिंह को मारते हो। यंत्रणा, भय, मृत्यु, पीडा, चिंता, क्रोध, हिंसा, उदासी ये सारी चीजें घटित होती हैं जानवर को। उसके सारे शरीर में हिंसा पीड़ा, यंत्रणा फैल जाती है। सारा शरीर विषाक्त तत्वों से, जहर से भर जाता है। शरीर की सारी ग्रंथियां जहर छोड़ देती हैं। क्योंकि जानवर बड़ी पीड़ा में मर रहा होता है। और फिर तुम खाते हो उस मांस को-उस मांस में वे सब जहर मौजूद हैं जो जानवर ने छोड़े हैं। सारी बात जहरीली है। फिर वे सारे जहर तुम्हारे शरीर में चले आते हैं।

और वह मांस जिसे तुम खा रहे हो, किसी जानवर के शरीर का मांस है। वहां उसका कोई सुनिश्चित उद्देश्य था। एक विशिष्ट ढंग की चेतना थी उस जानवर के शरीर में। तुम जानवर की चेतना की तुलना में ज्यादा ऊंचे तल पर हो, और जब तुम जानवर का मांस खाते हो तो तुम्हारा शरीर जानवर के निम्न तल पर आ जाता है। तब तुम्हारी चेतना और तुम्हारे शरीर के बीच एक दूरी पैदा हो जाती है, एक तनाव पैदा हो जाता है, एक बेचैनी होने लगती है।

तो तुम्हें वही चीजें खानी चाहिए जो स्वाभाविक हैं- तुम्हारे लिए स्वाभाविक हैं-फल, मेवा, सब्जियां, जितना हो सके खाओ ये सब। और मजे की बात यह है कि तुम इन चीजों को अपनी जरूरत से ज्यादा नहीं खा सकते। जो कुछ भी स्वाभाविक होता है वह सदा तुम्हें तृप्ति देता है, क्योंकि वह तुम्हारे शरीर को पोषण देता है, तुम्हें सुखद अनुभूति देता है। तुम तृप्त अनुभव करते हो। यदि कोई बात अस्वाभाविक है तो वह तुम्हें कभी तृप्ति की अनुभूति नहीं देती। आइसक्रीम खाते चले जाओ : तुम कभी तृप्त अनुभव नहीं करते। असल में जितना तुम खाते हो, उतना ही तुम्हें लगता है कि और खाओ। वह भोज्य पदार्थ नहीं है। तुम्हारे मन को धोखा दिया जा रहा है। अब तुम शरीर की आवश्यकता के अनुसार नहीं खा रहे हो; तुम बस स्वाद के लिए खा रहे हो। जीभ निर्णायक हो गई है।

जीभ निर्णायक नहीं होनी चाहिए। वह पेट के बारे में कुछ भी नहीं जानती है। वह शरीर के बारे में जरूरत है। तुम्हारा शरीर हलका होना चाहिए; और मांसाहारी का शरीर बहुत बोझिल होता है।

कभी ध्यान देना कि क्या होता है जब तुम मांस खाते हो जब तुम किसी पशु को मारते हो तो क्या होता है उसे जब वह मरता है? निश्चित ही, कोई नहीं मरना चाहता। जीवन स्वयं को जारी रखना चाहता है, पशु स्वेच्छा से तो मर नहीं रहा है। अगर कोई तुम्हारी हत्या करे, तो तुम शाति से तो मर नहीं जाओगे। यदि एक सिंह छलांग लगा दे तुम पर और मार डाले तुमको, तो तुम्हारे मन पर क्या गुजरेगी? वैसी ही तकलीफ सिंह को होती है जब तुम सिंह को मारते हो। यंत्रणा, भय, मृत्यु, पीडा, चिंता, क्रोध, हिंसा, उदासी ये सारी चीजें घटित होती हैं जानवर को। उसके सारे शरीर में हिंसा पीड़ा, यंत्रणा फैल जाती है। सारा शरीर विषाक्त तत्वों से, जहर से भर जाता है। शरीर की सारी ग्रंथियां जहर छोड़ देती हैं। क्योंकि जानवर बड़ी पीड़ा में मर रहा होता है। और फिर तुम खाते हो उस मांस को-उस मांस में वे सब जहर मौजूद हैं जो जानवर ने छोड़े हैं। सारी बात जहरीली है। फिर वे सारे जहर तुम्हारे शरीर में चले आते हैं।

और वह मांस जिसे तुम खा रहे हो, किसी जानवर के शरीर का मांस है। वहां उसका कोई सुनिश्चित उद्देश्य था। एक विशिष्ट ढंग की चेतना थी उस जानवर के शरीर में। तुम जानवर की चेतना की तुलना में ज्यादा ऊंचे तल पर हो, और जब तुम जानवर का मांस खाते हो तो तुम्हारा शरीर जानवर के निम्न तल पर आ जाता है। तब तुम्हारी चेतना और तुम्हारे शरीर के बीच एक दूरी पैदा हो जाती है, एक तनाव पैदा हो जाता है, एक बेचैनी होने लगती है।

तो तुम्हें वही चीजें खानी चाहिए जो स्वाभाविक हैं- तुम्हारे लिए स्वाभाविक हैं-फल, मेवा, सब्जियां, जितना हो सके खाओ ये सब। और मजे की बात यह है कि तुम इन चीजों को अपनी जरूरत से ज्यादा नहीं खा सकते। जो कुछ भी स्वाभाविक होता है वह सदा तुम्हें तृप्ति देता है, क्योंकि वह तुम्हारे शरीर को पोषण देता है, तुम्हें सुखद अनुभूति देता है। तुम तृप्त अनुभव करते हो। यदि कोई बात अस्वाभाविक है तो वह तुम्हें कभी तृप्ति की अनुभूति नहीं देती। आइसक्रीम खाते चले जाओ : तुम कभी तृप्त अनुभव नहीं करते। असल में जितना तुम खाते हो, उतना ही तुम्हें लगता है कि और खाओ। वह भोज्य पदार्थ नहीं है। तुम्हारे मन को धोखा दिया जा रहा है। अब तुम शरीर की आवश्यकता के अनुसार नहीं खा रहे हो; तुम बस स्वाद के लिए खा रहे हो। जीभ निर्णायक हो गई है।

जीभ निर्णायक नहीं होनी चाहिए। वह पेट के बारे में कुछ भी नहीं जानती है। वह शरीर के बारे में जरूरत है। तुम्हारा शरीर हलका होना चाहिए; और मांसाहारी का शरीर बहुत बोझिल होता है।

कभी ध्यान देना कि क्या होता है जब तुम मांस खाते हो जब तुम किसी पशु को मारते हो तो क्या होता है उसे जब वह मरता है? निश्चित ही, कोई नहीं मरना चाहता। जीवन स्वयं को जारी रखना चाहता है, पशु स्वेच्छा से तो मर नहीं रहा है। अगर कोई तुम्हारी हत्या करे, तो तुम शाति से तो मर नहीं जाओगे। यदि एक सिंह छलांग लगा दे तुम पर और मार डाले तुमको, तो तुम्हारे मन पर क्या गुजरेगी? वैसी ही तकलीफ सिंह को होती है जब तुम सिंह को मारते हो। यंत्रणा, भय, मृत्यु, पीडा, चिंता, क्रोध, हिंसा, उदासी ये सारी चीजें घटित होती हैं जानवर को। उसके सारे शरीर में हिंसा पीड़ा, यंत्रणा फैल जाती है। सारा शरीर विषाक्त तत्वों से, जहर से भर जाता है। शरीर की सारी ग्रंथियां जहर छोड़ देती हैं। क्योंकि जानवर बड़ी पीड़ा में मर रहा होता है। और फिर तुम खाते हो उस मांस को-उस मांस में वे सब जहर मौजूद हैं जो जानवर ने छोड़े हैं। सारी बात जहरीली है। फिर वे सारे जहर तुम्हारे शरीर में चले आते हैं।

और वह मांस जिसे तुम खा रहे हो, किसी जानवर के शरीर का मांस है। वहां उसका कोई सुनिश्चित उद्देश्य था। एक विशिष्ट ढंग की चेतना थी उस जानवर के शरीर में। तुम जानवर की चेतना की तुलना में ज्यादा ऊंचे तल पर हो, और जब तुम जानवर का मांस खाते हो तो तुम्हारा शरीर जानवर के निम्न तल पर आ जाता है। तब तुम्हारी चेतना और तुम्हारे शरीर के बीच एक दूरी पैदा हो जाती है, एक तनाव पैदा हो जाता है, एक बेचैनी होने लगती है।

तो तुम्हें वही चीजें खानी चाहिए जो स्वाभाविक हैं- तुम्हारे लिए स्वाभाविक हैं-फल, मेवा, सब्जियां, जितना हो सके खाओ ये सब। और मजे की बात यह है कि तुम इन चीजों को अपनी जरूरत से ज्यादा नहीं खा सकते। जो कुछ भी स्वाभाविक होता है वह सदा तुम्हें तृप्ति देता है, क्योंकि वह तुम्हारे शरीर को पोषण देता है, तुम्हें सुखद अनुभूति देता है। तुम तृप्त अनुभव करते हो। यदि कोई बात अस्वाभाविक है तो वह तुम्हें कभी तृप्ति की अनुभूति नहीं देती। आइसक्रीम खाते चले जाओ : तुम कभी तृप्त अनुभव नहीं करते। असल में जितना तुम खाते हो, उतना ही तुम्हें लगता है कि और खाओ। वह भोज्य पदार्थ नहीं है। तुम्हारे मन को धोखा दिया जा रहा है। अब तुम शरीर की आवश्यकता के अनुसार नहीं खा रहे हो; तुम बस स्वाद के लिए खा रहे हो। जीभ निर्णायक हो गई है।

जीभ निर्णायक नहीं होनी चाहिए। वह पेट के बारे में कुछ भी नहीं जानती है। वह शरीर के बारे में तो स्वाभाविक भोजन... और जब मैं कहता हूं 'स्वाभाविक' तो मेरा मतलब है जिसकी जरूरत है तुम्हारे शरीर को। एक शेर की जरूरत अलग है; उसे जानवरों को मार कर खाना है। यदि तुम शेर का मांस खाते हो, तो तुम हिंसक हो जाओगे, फिर वह हिंसा कहां निकलेगी? तुम्हें मानव-समाज में रहना है न कि किसी जंगल में। तब तुम्हें हिंसा को दबाना पड़ेगा। तब एक दुष्चक्र शुरू हो जाता है।

जब तुम हिंसा को दबाते हो, तो क्या होता है? जब तुम क्रोधित, हिंसक अनुभव करते हो तो तुम्हारी ग्रंथियां जहर छोड़ देती हैं शरीर में, क्योंकि वही जहर ऐसी अवस्था निर्मित कर देता है कि तुम सचमुच हिंसक हो सकते हो और किसी को मार सकते हो। ऊर्जा आ जाती है तुम्हारे हाथों में, ऊर्जा आ जाती है तुम्हारे दांतो में ये दो स्थल हैं जिनके द्वारा जानवर हिंसा करते हैं। मनुष्य आया है जानवरों से। तो जब तुम क्रोधित होते हो, तब ऊर्जा बहती है- वह हाथों में और दांतो में, जबड़ों में आ जाती है। लेकिन तुम रहते हो मनुष्य-समाज में और क्रोधित होना सदा लाभकारी नहीं होता। तुम रहते हो सभ्य समाज में, और तुम जानवर की भांति व्यवहार नहीं कर सकते। यदि तुम जानवर की भांति व्यवहार करते हो, तो तुम्हें उसका बहुत ज्यादा मूल्य चुकाना पड़ेगा और तुम तैयार नहीं हो उतना मूल्य चुकाने के लिए। तो तुम क्या करोगे? तुम क्रोध को दबा लेते हो हाथों में; तुम क्रोध को दबा लेते हो अपने दांतो में-तुम एक झूठी मुस्कुराहट ऊपर से ओढ़ लेते हो। और तुम्हारे दांतो में, मसूढ़ों में क्रोध इकट्ठा होता रहता है। जब तुम हिंसा को दबाते हो, तो क्या होता है? जब तुम क्रोधित, हिंसक अनुभव करते हो तो तुम्हारी ग्रंथियां जहर छोड़ देती हैं शरीर में, क्योंकि वही जहर ऐसी अवस्था निर्मित कर देता है कि तुम सचमुच हिंसक हो सकते हो और किसी को मार सकते हो। ऊर्जा आ जाती है तुम्हारे हाथों में, ऊर्जा आ जाती है तुम्हारे दांतो में ये दो स्थल हैं जिनके द्वारा जानवर हिंसा करते हैं। मनुष्य आया है जानवरों से। तो जब तुम क्रोधित होते हो, तब ऊर्जा बहती है-वह हाथों में और दांतो में, जबड़ों में आ जाती है। लेकिन तुम रहते हो मनुष्य-समाज में और क्रोधित होना सदा लाभकारी नहीं होता। तुम रहते हो सभ्य समाज में, और तुम जानवर की भांति व्यवहार नहीं कर सकते। यदि तुम जानवर की भांति व्यवहार करते हो, तो तुम्हें उसका बहुत ज्यादा मूल्य चुकाना पड़ेगा और तुम तैयार नहीं हो उतना मूल्य चुकाने के लिए। तो तुम क्या करोगे? तुम क्रोध को दबा लेते हो हाथों में; तुम क्रोध को दबा लेते हो अपने दांतो में-तुम एक झूठी मुस्कुराहट ऊपर से ओढ़ लेते हो। और तुम्हारे दांतो में, मसूढ़ों में क्रोध इकट्ठा होता रहता है।

मैंने स्वाभाविक मसूढ़ों वाले लोग बहुत कम देखे हैं। लोगों के मसूढे स्वाभाविक नहीं होते-अवरुद्ध होते हैं, सख्त होते हैं, क्योंकि बहुत ज्यादा क्रोध इकट्ठा होता है उनमें। यदि तुम किसी व्यक्ति के मसूढे दबाओ, तो क्रोध प्रकट हो सकता है। हाथ असुंदर हो जाते हैं। वे खो देते हैं सुडौलता, वे खो देते हैं लोच, क्योंकि बहुत ज्यादा क्रोध इकट्ठा हो जाता है वहां। जो लोग गहरी मालिश का काम करते रहे हैं, वे जानते हैं कि जब हाथों को दबाया जाता है, मालिश की जाती है हाथों की, तो व्यक्ति क्रोधित होने लगता है। कोई कारण नहीं होता। तुम मालिश कर रहे हो व्यक्ति की और अचानक वह क्रोधित अनुभव करने लगता है। यदि तुम उसके मसूढे दबाओ, तो वह व्यक्ति फिर क्रोधित हो जाता है। वहां क्रोध इकट्ठा है।

ये शरीर की अशुद्धियां हैं: उन्हें निर्मुक्त करना पड़ता है। यदि तुम उन्हें निर्मुक्त नहीं करते तो शरीर बोझिल रहेगा। योग के ऐसे आसन हैं जो शरीर में हर प्रकार के जहर को निर्मुक्त कर देते हैं। योग की क्रियाएं उन्हें निर्मुक्त कर देती हैं; और योगी के शरीर की एक अपनी ही संवेदनशीलता होती है। योग के आसन दूसरे व्यायाम से बिलकुल भिन्न हैं। वे तुम्हारे शरीर को शक्तिशाली नहीं बनाते; वे तुम्हारे शरीर को ज्यादा लोचपूर्ण, नमनीय बनाते हैं। और जब तुम्हारा शरीर ज्यादा लोचपूर्ण होता है, तो तुम एक अलग ही ढंग से शक्तिशाली होते हो. तुम ज्यादा युवा होते हो। वे तुम्हारे शरीर को ज्यादा तरल बनाते हैं, ज्यादा प्रवाहपूर्ण बनाते हैं। शरीर में कोई अवरोध नहीं रहता। संपूर्ण शरीर एक जैविक इकाई की भांति काम करता है। वह बाजार के शोर की भांति नहीं होता; वह आर्केस्ट्रा की भांति होता है। गहरी लयबद्धता होती है भीतर, कोई ग्रंथियां नहीं होतीं, तब शरीर शुद्ध होता है। योग के आसन अदभुत रूप से मदद दे सकते हैं। हर कोई अपने पेट में बहुत कुछ दबाए हुए है, क्योंकि केवल वही जगह है शरीर में जहां कि तुम बातों को दबा सकते हो। और तो कोई जगह नहीं है। यदि तुम किसी बात को दबाना चाहते हो तो उसे पेट में ही दबाना पड़ता है। यदि तुम रोना चाहते हो तुम्हारी पत्नी मर गई है, कि तुम्हारी प्रेमिका मर गई है, कि तुम्हारा मित्र मर गया है-लेकिन रोना अच्छा नहीं मालूम पड़ता। ऐसा लगता है जैसे कि तुम कमजोर प्राणी हो-एक स्त्री के लिए रो रहे हो। तो तुम उसे दबा लेते हो। लेकिन कहां ले जाओगे तुम उस रोने को ? स्वभावतः, तुम्हें उसे पेट में दबाना पड़ता है। केवल वही जगह है शरीर में, एकमात्र खाली जगह, जहां तुम दबा सकते हो।

यदि तुम पेट में दबा लेते हो.. और प्रत्येक व्यक्ति ने दबाई हैं बहुत तरह की भावनाएं - प्रेम की, कामवासना की, क्रोध की, उदासी की, रोने की, हंसने की भी। तुम हंस भी नहीं सकते खुल कर। वह असभ्यता मालूम पड़ती है, अभद्रता मालूम पड़ती है तो तुम सुसंस्कृत नहीं हो। तुमने हर चीज दबाई है। इसी दमन के कारण ही तुम गहरी श्वास नहीं ले सकते, तुम्हें उथली श्वास लेनी पड़ती है। क्योंकि यदि तुम गहरी श्वास लेते हो, तो दमन से हुए घाव फिर उभरेंगे। तुम भयभीत हो। हर कोई भयभीत है पेट में उतरने से।

प्रत्येक बच्चा जब पैदा होता है, तो वह पेट से श्वास लेता है। देखना किसी सोए हुए बच्चे को. पेट ऊपर-नीचे होता है-छाती से नहीं लेता वह श्वास। कोई बच्चा छाती से श्वास नहीं लेता है, बच्चे पेट से श्वास लेते हैं। वे अभी बिलकुल स्वाभाविक होते हैं, कोई चीज दबाई नहीं गई है। उनके पेट खाली होते हैं और उस खालीपन का एक सौंदर्य होता शरीर में। जब पेट में बहुत ज्यादा दमन इकट्ठा हो जाता है, तो शरीर दो भागों में बंट जाता है-निम्न और उच्च। तब तुम अखंड नहीं रहते; तुम दो हो जाते हो। निम्न भाग निंदित हिस्सा होता है। एकत्व खो जाता है, द्वैत आ जाता है तुम्हारे अस्तित्व में। अब तुम सुंदर नहीं हो सकते, तुम प्रसादपूर्ण नहीं हो सकते। तुम एक की जगह दो शरीर लिए रहते हो। और उन दोनों के बीच सदा एक दूरी रहेगी। तुम सुंदर ढंग से चल नहीं सकते, तुम्हें घसीटना पड़ता है अपनी टांगों को। असल में यदि शरीर एक होता है, तो तुम्हारी टलें तुम्हें लेकर चलती हैं। यदि शरीर दो में बंटा हुआ है, तो तुम्हें घसीटना पड़ता है अपनी टांगों को। तुम्हें ढोना पड़ता है अपने शरीर को। वह बोझ जैसा लगता है। तुम आनंदित नहीं हो सकते उससे। तुम टहलने का आनंद नहीं ले सकते, तुम तैरने का आनंद नहीं ले सकते, तुम ते दौड़ने का आनंद नहीं ले सकते क्योंकि शरीर एक नहीं है। इन सभी गतियों के लिए और उनसे आनंदित होने के लिए, शरीर को फिर से अखंड करने की जरूरत है। एक अखंडता फिर से निर्मित करनी जरूरी है : पेट को पूरी तरह शुद्ध करना होगा। और पेट की शु‌द्धि के लिए बहुत गहरी श्वास चाहिए, क्योंकि जब तुम गहरी श्वास भीतर लेते हो और गहरी श्वास बाहर छोड़ते हो, तो पेट उस सब को बाहर फेंक देता है जो वह ढो रहा होता है। श्वास बाहर फेंकने में पेट स्वयं को निर्मुक्त करता है। इसीलिए प्राणायाम का, गहरी श्वास का इतना महत्व है। श्वास छोड़ने पर जोर होना चाहिए, ताकि जो चीज भी पेट अनावश्यक रूप से ढो रहा है, निर्मुक्त हो जाए।

और जब पेट दमित भावनाओं से मुक्त हो जाता है, तो यदि तुम्हें कब्ज रहती है तो अचानक गायब हो जाएगी। जब तुम भावनाओं को दबा लेते हो पेट में, तो कब्जियत रहेगी, क्योंकि पेट कठोर हो जाता है। गहरे में तुम रोक रहे होते हो पेट को; तुम उसे स्वतंत्र रूप से गति नहीं करने देते। इसलिए यदि भावनाओं का दमन किया गया है, तो कब्ज होगी ही। कब्ज एक मानसिक रोग ज्यादा है शारीरिक रोग की अपेक्षा। वह शरीर की अपेक्षा मन से ज्यादा संबंधित है।

लेकिन ध्यान रहे, मैं मन और शरीर को दो में नहीं बांट रहा हूं। वे एक ही घटना के दो पहलू हैं। मन और शरीर दो चीजें नहीं हैं। असल में 'मन और शरीर' कहना ठीक नहीं. इसे 'मनोशरीर' कहना ज्यादा ठीक होगा। तुम्हारा शरीर एक साइकोसोमैटिक घटना है। मन शरीर का सूक्ष्म भाग है और शरीर मन का स्थूल भाग है। और वे दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं; वे साथ-साथ चलते हैं। यदि तुम मन में कुछ दबा रहे हो, तो शरीर में ग्रंथियां बननी शुरू हो जाएंगी। यदि मन निर्धार हो जाता है तो शरीर भी हलका हो जाता है। इसीलिए मेरा रेचन पर इतना जोर है। रेचन एक शु‌द्धिकारक प्रक्रिया है। ये सब तप के अंतर्गत आते हैं. उपवास; स्वाभाविक भोजन; गहरी श्वास; योग के आसन; सहज- स्वाभाविक लोचपूर्ण जीवन, कम से कम दमन; शरीर को सुनना; शरीर की समझ से चलना।'तपश्चर्या अशु‌द्धियों को मिटा देती है।

इन्हें मैं तपश्चर्या कहता हूं।' तपश्चर्या' का मतलब शरीर को सताना नहीं है। इसका मतलब है शरीर में ऐसी जीवंत अग्नि. का निर्माण करना जिससे शरीर शुद्ध हो जाए। जैसे तुमने सोना डाल दिया हो अग्नि में-तो वह सब जो सोना नहीं होता, जल जाता है; केवल शुद्ध, खरा सोना बच रहता है।'तपश्चर्या अशुद्धियों को मिटा देती है। और इस प्रकार हुई शरीर तथा इंद्रियों की परिपूर्ण शु‌द्धि के साथ शारीरिक और मानसिक शक्तियां जाग्रत होती हैं। जब शरीर शुद्ध हो जाता है, तब तुम पाओगे कि बड़ी अदभुत शक्तियां जाग्रत हो रही हैं, तुम्हारे सामने नए आयाम खुल रहे हैं। अचानक नए द्वार, नई संभावनाएं खुल जाती हैं। शरीर में बड़ी शक्ति छिपी है। जब वह निर्मुक्त होती है, तो तुम भरोसा न कर पाओगे कि शरीर में इतनी शक्ति छिपी थी। और प्रत्येक इंद्रिय के पीछे एक सूक्ष्म इंद्रिय होती है। आंखों के पीछे एक सूक्ष्म दृष्टि होती है – एक अंतर्दृष्टि। जब आंखें शुद्ध होती हैं, निर्मल होती हैं, तो तुम चीजों को केवल वैसा ही नहीं देखते जैसी कि वे सतह पर दिखाई देती हैं। तुम उनको गहराई में देखने लगते हो। एक नया ही आयाम खुल जाता है।

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